
ओवैसी के आईटी सेल के लिए कंटेंट तैयार करने वालो को यह याद रहे कि शाहनवाज आलम एमआईएम के विधायक बाद में हैं पहले वे सीमांचल के दिग्गज नेता मरहूम तस्लीमुद्दीन के बेटे है जिन्होंने अपने जीते जी ओवैसी जैसों को यहां घुसने नहीं दिया था। उसी तरह जोकीहाट की जनता को जरा भी महसूस हुआ कि उनके नेता को कम आंका जा रहा है तो अगला शाहनवाज हुसैन बनाते देर नहीं लगेगी।
सीमांचल की राजनीति में ओवैसी के वजह से कुछ बदलाव जरूर देखने को मिला है मगर ये मात्र किशनगंज लोकसभा तक ही सीमित होता अगर उन्हें शाहनवाज आलम नहीं मिले होते। अख्तरुल ईमान तीरंदाज होंगे पर उनका दायरा अररिया जिला के सीमा से बाहर है। अररिया जिला का सीट निकलवा कर दे सके ये कम से कम अभी उनके बूते से बाहर की बात है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अररिया सदर सीट से एमआईएम प्रत्याशी राशिद अनवर है जो अपना जमानत तक नहीं बचा पाया, जबकि यहां मुस्लिम समुदाय की आबादी लगभग साठ प्रतिशत के क़रीब है।
इस सच्चाई से ओवैसी भी अच्छे से परिचित होंगे जो बहुत से जगहों पर देखने को भी मिल रहा हैं। अभी अगर अख्तरुल ईमान के लिए सबसे बड़ा खतरा कोई होगा तो वो शाहनवाज ही होगा, उसके जाने से पार्टी में उनका कद छोटा पड़ता दिखाई दे रहा है। वैसे शाहनवाज भी कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं है और हमेशा अब्बा के साथ रहने के कारण उन्हें इस इलाके के नेताओं की कुंडली भी निश्चित मालूम होगी। किसने कहां धोखा दिया और किसने कहां हमले करवाएं यह कोई भूलने वाली बात नहीं है।
मरहूम तस्लीमुद्दीन का उत्तराधिकारी शाहनवाज आलम

जोकीहाट सीट को सीमांचल का सबसे हॉट सीट माना गया था क्योंकि यहां लड़ाई बड़े और छोटे भाई के बीच में थी। राजद ने इस चुनाव में निवर्तमान विधायक शाहनवाज आलम का टिकट काट कर बड़े भाई सरफराज आलम को दे दिया था।
सीमांचल के कद्दावर नेता महरूम तस्लीमुद्दीन के गुजर जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी को लेकर काफी लंबे समय से खींचतान जारी था। उनके बड़े बेटे सरफराज आलम को उपचुनाव में सांसद बनाया जाता है पर जब विधानसभा उपचुनाव की बारी आती है तो बड़े भाई आपने बेटे का नाम आगे करते हैं, जिस पर काफी तनाव भी पैदा होता है। शायद मरहूम को इस बात अंदाजा पहले से ही था इसलिए उनके अधिकतर करीबी लोगों का साथ शाहनवाज को मिला। अंत में काफी जद्दोजहद के बाद राजद की टिकट पर उपचुनाव लड़ते है और जीतते भी है।

राजद ने टिकट काटकर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार लिया इस फैसले के वजह से जनता में आक्रोश व्याप्त हो जाता है। पार्टी हाईकमान पहले शाहनवाज को भरोसे में रखा और अंतिम समय में धोखा दे दिया वह भी उस वक्त जब सभी पार्टी ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। जबकि वे टिकट को लेकर निश्चिन्त थे मगर अंतिम घड़ी में उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से पता चलता है कि टिकट उन्हें नहीं बल्कि बड़े भाई सरफराज को दिया जा रहा है। इस फैसले से सबसे बड़ा चोट वहां की जनता को लगा जो उनमें तस्लीमुद्दीन का छाप देखते आ रहें हैं।
एमआईएम का हाई वोल्टेज ड्रामा
पहले एमआईएम ने पूर्व जदयू प्रत्याशी रह चुके मुर्शीद आलम का नाम घोषित किया था। इस फैसले ने कार्यकर्ताओं में भयानक आक्रोश पैदा कर दिया। नाराज चल रहे नेताओं में एक नाम एमआईएम प्रखण्ड अध्यक्ष गुलशन आरा भी थी जिसने पार्टी को जोकीहाट के जमीन पर खड़ा किया था। वे जनता के मुद्दों पर अक्सर अफसरों से भिड़ते रहती थीं। चुनाव के घोषणा होने से कुछ ही दिन पहले वहां के बीडीओ से भी लड़ाई हुई थी जिसमें दोनों तरफ से एफआईआर भी हो चुका था। पार्टी को खून पसीना देने वाले कार्यकर्त्ता को नजरंदाज कर एक अपराधी छवि वाले उम्मीदवार को पैराशूट से उतारना ओवैसी को काफी महंगा पड़ने वाला था। उसने खुलेआम पार्टी पर टिकट बेचने का आरोप लगाया, उसने अख्तरुल ईमान और मो आदिल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

दूसरी तरफ शाहनवाज भी मायूस हो कर घर आ गए, मगर कहते है न जनता चाहे तो कुछ भी बदल सकता है, वो आसमान पर बिठा सकता है तो जमीन पर भी उतार सकता है। दूसरे ही दिन हजारों की संख्या में लोग पहुंच कर निर्दलीय उम्मीदवारी पेश करने का आदेश देते हैं, चूंकि सभी पार्टियों के उम्मीदवार लगभग तय हो चुके थे लेकिन अंतिम उम्मीद के साथ वे अन्य दलों से बात चलाना शुरू करते हैं और अंत में एमआईएम के साथ तालमेल बैठता है।

एमआईएम के लिए भी यह एक अवसर के तरह था क्योंकि उन्हें पता था कि किसी भी हालत में वे अररिया से सीट नहीं निकाल सकते। दूसरा, जिस तस्लीमुद्दीन ने उनके लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा रखा था उसी के बेटे को टिकट देना खुशकिस्मती की बात थी ही साथ ही सीमांचल की राजनीति में एक नया शुरुआत भी है।
यहां एमआईएम भी अन्य सभी राजनीतिक दलों के तरह अपने घोषित उम्मीदवार, कार्यकर्त्ता को मझधार में छोड़ वे शाहनवाज को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। यह तो लोग है जो राजनीतिक दलों को माथे पर चढ़ा देती है वरना इस हमाम में सभी नंगे है।
निष्कर्ष: शाहनवाज एमआईएम के इकलौता विधायक होंगे जिसके लिए हिन्दुओं ने खासकर ब्राह्मणों ने भी खुल कर प्रचार किया और वैसे हिन्दुओं का वोट भी उनके पाले में गया जो सरफराज आलम और भाजपा उम्मीदवार रणजीत यादव दोनों के उस छवि से परिचित है।

इससे मालूम चलता है कि शाहनवाज आलम अपने आप में एक ऐसा नाम है जिसका केवल होना ही बहुत मायने रखता है, चाहे वो एमआईएम से हो या राजद से या निर्दलीय हो। तस्लीमुद्दीन का यही सबसे बड़ा पहचान था, उन्होंने अपने शर्तो पर लालू यादव का साथ दिया तो उसी तरह नीतीश कुमार को उन्हें मनाने के लिए सिसौना ( पैतृक गांव) आना पड़ा। वे राजनीतिक दलों के शोकॉज नोटिस को हमेशा बाएं जेब में लेकर घूमने वाले शख्स थे। मतलब उनकी पहचान किसी भी पार्टी की मोहताज कभी नहीं रही, वे मीडिया के सामने लालू का फजीहत कर देते तो कांग्रेस को भी गरियाने में पीछे नहीं रहते।
आज जोकीहाट की जनता शाहनवाज में तस्लीमुद्दीन छाप देखते आ रहे हैं, मुझे पूरा उम्मीद है कि उन्हें भी अपनी जिम्मेदारियों का पूरा एहसास होगा। इसकी एक झलक चुनाव का परिणाम आते ही दिखा दिया जब उन्होंने सबसे पहले जोकीहाट के सभी समुदायों से मिले प्यार के लिए धन्यवाद दिया। यह एक तरह का आश्वासन था जो बता रहा था कि तस्लीमुद्दीन का उत्तराधिकारी कभी मजहब या जात की राजनीति नहीं कर सकता, वह अपने जनता का है और जनता उसकी है, पार्टी वगैरह तो बस एक जरिया मात्र है।