महागठबंधन के मजबूत किले में जब कहीं से सेंधमारी नहीं कर सके ऐसे वक्त में राज्यसभा उपसभापति हरिवंश बाबू का “अखबार नहीं आन्दोलन” @ प्रभात खबर का paid news उर्फ सुपारी पत्रकारिता

“संवाददाता” नामक इस खबरनवीस को पालीगंज से भाकपा माले प्रत्याशी संदीप सौरभ का नाम तक नहीं मालूम है। पता होगा भी तो कैसे? जब डेस्क पर बैठ कर ऐसा खबर बनवाया जाता हो। अगर पक्ष छापने के उद्देश्य से किसी पार्टी ऑफिस फोन भी घुमाया होता तो भी नाम तो कम से कम मालूम हो ही जाता। मगर सच्चाई से कोई वास्ता हो तब न।
ऐसे खबरों को ही अंग्रेजी में paid news कहा जाता है। इसका पेमेंट कैश, उपसभापति का पद, शेयर आदि से हो सकता है।
हो सकता है इसे आप एक मामूली सा टाइपो बता कर खारिज कर दें लेकिन मेरा सवाल इससे कहीं बड़ा है! अगर यह टाईपो है तो क्या संपादक को घास छीलने के लिए रखें हैं? उसने सामने वाले का पक्ष लिए बिना इसे छाप कैसे दिया? क्या वह भी मालिक के आगे मजबूर है? क्या संपादक नाम का प्राणी अब बस नाम का रह गया है?
इसी आधार पर होगा झूठ का खेती
कुछ दिनों में एक खबर आयेगा “चुनाव प्रचार में कन्हैया से परहेज़ कर रहें हैं तेजस्वी और राहुल गांधी” आम जनता पर इस हेडलाइन का असर तब होगा जब एनडीए इस रिपोर्ट के हवाले महागठबंधन में फूट बताएगा। इसके बाद का काम मोदी पूरा कर देगा ” भाइयों बहनों! देखिए लुटेरों में लूट के लिए अभी से लड़ाई शुरू हो गई है” यहां से गोदी मीडिया, आईटी सेल, ट्वीटर ट्रेंड का काम शुरू होता है।
अगर यहां भी दाव फेल हो गया फिर तो चुनाव के बाद घोड़ा खरीद और इसमें भाजपा के आगे कोई टिक सकता है भला! पीएमकेयर इसी दिन सब के लिए तो है, नोट बन्दी का असली फायदा केवल यहीं तो दिखता है।
सईयां भए कोतवाल
इन सब के बीच चुनाव आयोग कहां है? किसी को दिखें तो उसे याद दिला दें। वैसे भी 2019 चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी पर आदर्श आचार संहिता का मामला दर्ज करने वाले चुनाव आयोग के शीर्ष तीन में एक अशोक लवासा को निकलवा ही दिया है।