मुस्लिम लीडरशिप और सेकलारिज्म की कसमें खाने वाले नेताओं के लिए कश्मीर मुद्दा क्यों नहीं है?
मुस्लिम लीडरशिप का झंडा थामे दौर रहे नेताओं, सेकलारिज्म की कसमें खाने वाले नेताओं के लिए कश्मीर मुद्दा क्यों नहीं है?पिछले 11 महीने से अनिश्चितताओं की ओर धकेल दिए गए कश्मीरियों की परवाह किसी भारतीयों को नहीं है। एक साम्राज्यवाद के अंधकार से निकल कर हमारा देश भारत आज खुद एक साम्राज्यवादी ताकतों के तरह व्यवहार कर रहा है। क्या हम लोग कश्मीर के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहें है? कश्मीर में पिछले 11 महीनों से क्या चल रहा है इस पर कोई क्यों बात नहीं कर रहा? सैकड़ों साल तक ब्रिटिश साम्राज्य से निकल कर भी हम लोगों में इतनी शालीनता नहीं पनप सकी जो कश्मीर के साथ खड़ा हो सके। हमलोग चुपचाप तमाशा देख रहें हैं, इसपर आवाज उठाने लायक मौलिक नैतिकता हम में क्यों नहीं है।अगर कश्मीर को हम भारत का हिस्सा मानते है तो समय आ गया है कि हम उनके लिए आवाज उठाना भी सीखें, आज उनके लिए चुप रहें तो कल हमारे लिए कोई नहीं आएगा।
कोरोना तालाबंदी के बाद देश भर में पढ़ाई कर रहे कश्मीरी छात्र अपने घरों को लौट आए हैं वे शिक्षण संस्थान अब ऑनलाइन पढ़ाई और एग्जाम की प्रक्रिया अपना रही है, मगर ये सुविधाएं कश्मीर छोड़ पूरे भारत के छात्रों को उपलब्ध है। लगभग 300 से अधिक दिनों के बाद 12 मई को कश्मीर के 8 जिलों में 2जी सेवा बहाल तो हो गया है पर ये हाथी के दाँत बना हुआ है, 2जी के इस स्पीड से केवल कुछ केबी साइज के टैक्स्ट ही भेजें जा सकते हैं बिना मल्टीमीडिया फाइल ट्रांसफर के इसका कोई क्या उपयोग कर सकता है.
न्युज क्लिक वेबसाइट के एक रिपोर्ट में कठुआ की मधुबाला जो असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी के लिए NET की तैयारी कर रही है वो बताती है ” जम्मू और कश्मीर में ऑनलाइन क्लास के नाम पर सरकार आंखों में धूल झोंकने में लगी है, एक तरफ पूरे देश भर के छात्र ऑनलाइन सुविधा का लाभ उठा रहें हैं वहीं दूसरी तरफ हम लोग 2जी स्पीड में सिसक रहें हैं, सरकार हमारी समस्याओं पर जाने कब ध्यान देगी “
इसी रिपोर्ट में बांदीपोरा हाई स्कूल के एक शिक्षक निसार अहमद बताते हैं ” हमलोग सरकार के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार से बहुत ही दुखी और क्रोधित हैं खराब इंटरनेट स्पीड के कारण लेक्चर और संवाद नामुमकिन हो चुका है, हम लोगों ने जब ऑनलाइन क्लासेज शुरू किया था तब अच्छी खासी संख्या में छात्र उपस्थित हो रहे थे, लेकिन इंटरनेट के अभाव में ये संख्या धीरे – धीरे कम होते हुए अब बिल्कुल नगण्य हो चुका है। मेरी सरकार से दरख्वास्त है कि कृपया हमारी परेशानियों को समझते हुए 4जी इंटरनेट बहाल करने की कृपा करें ताकि लॉक डाउन का असर छात्रों की पढ़ाई पर ना पड़े ”
कश्मीर के एक रिसर्च स्कॉलर इसी रिपोर्ट में कहते हैं “इस लॉक डाउन के दौरान जहां हर तरफ शिक्षा के क्षेत्र में ज़ूम कॉल, गूगल कॉन्फ्रेंस जैसा एक नया तरीका अपनाया जा रहा है वहीं हम कश्मीर के छात्रों को इन सुविधाओं से वंचित रखा गया है। वैसे हमलोग इस तरह के लॉक डाउन के आदि हो चुके है, हमारे स्कूल, कॉलेज साल में औसतन चार से पांच महीने तक बंद रहता है। लेकिन इस बार हमें एक साधारण मूलभूत सुविधा इंटरनेट तक नहीं दिया गया है। भारत सरकार का हमलोग के प्रति ये रवैया देखकर मुझे दुःख होता है”
सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में वहां के लोगों के अधिकारों की रक्षा का गुहार लगाया जाता है मगर माननीय न्यायलय ने इस मामले को उसी केंद्र सरकार के झोली में निर्णय के लिए डाल दिया जिससे रक्षा की उम्मीद लिए प्रार्थी ने माननीय न्यायालय से लगाया गया था। केंद्र सरकार पहले ही साफ कह चुका है कि वे अभी 4जी सेवा चालू किए जाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं है और कब तक किया जाएगा ये बता पाना मुश्किल है। ये बिल्कुल वैसा ही है जैसा धारा 370 हटाए जाने के बाद habeus corpus आवेदन माननीय न्यायलय के समक्ष लाया गया था।
राजनीतिक अनिश्चितताओं से घिरे कश्मीर में पहले से ही कई तरह की पाबंदियां मौजूद है जिसके कारण वहां के छात्रों की पढ़ाई पर तो असर पड़ ही रहा था मगर लॉक डाउन के बाद घरों को लौट आए उन छात्रों को भी इसी समस्या से गुजरना पड़ रहा है, एक तरफ पूरे देश भर में मौजूद उनके बैचमेट वेबिनर, कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे हैं दूसरी तरफ कश्मीर के छात्र इन सुविधा के अभाव में दिन ब दिन पिछड़ते जा रहें हैं।
संविधान के अनुसार यह सीधे तौर पर उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। जैसे आर्टिकल 16 का उल्लंघन है जो अवसर की समानता का अधिकार देता है, उसी तरह आर्टिकल 19 का भी उल्लंघन है जो सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकारों में सूचीबद्ध करता है। मगर संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की रक्षा के दायित्व वहन करने वाले सत्ता के आगे नतमस्तक हैं.
भारत के सभी मैन स्ट्रीम मीडिया जाने क्यों चुप्पी साधे हुए है, हमारे भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन लगातार जारी है पर किसी मेन स्ट्रीम मीडिया ने यहां के नागरिकों के आवाज को रिपोर्ट करना जरूरी नहीं समझा।ठीक यही हाल हमारे राजनीतिक दलों का भी है, वोट बैंक बिगड़ने के डर से कश्मीर के भारतीयों को उनके हालात पर छोड़ दिया है, उन्हें पता है कि वहां किस स्तर पर शोषण किया जा रहा है फिर भी ये लोग मुर्दा खामोशी ओढ़ कर बैठे हैं।यहां सवाल उन मुसलमान लीडरशिप के पुरोधा होने का दावा करने वालो से भी है जो खुद को मुस्लिम राजनीति का ठेकेदार घोषित कर बैठें हैं, क्या उनके लिए कश्मीरी मुस्लिमों का मुद्दा कोई मायने नहीं रखता? उनके चमचमाती शेरवानी के अंदर बैठा मुसलमान लीडरशिप कश्मीर के नाम पर कहां छु मंतर हो जाता है? कहां हैं वो कथित मुस्लिम लीडरशिप के दावेदार जो सत्ता के इर्दगिर्द घूमने ला लालच लिए सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देते हैं?