हम वही लोग हैं जिन्होंने 2014 विधानसभा चुनाव में 65% का रिकॉर्ड मतदान करवाया था- पिछले तीस सालों मे सबसे ज्यादा मतदान प्रतिशत- अलगाववादी नेताओं द्वारा लोगों को बहिष्कार के लिए भड़काने के बावजूद।
यह वही अलगाववादी नेता हैं जिन्होंने कुछ वर्षों पहले 2010 में लाखों कश्मीरी को जिहाद के नाम पर सड़क पर उतार दिया था, ये वही अलगाववादी नेता हैं जिनके दिए गए “तारीखों” को लोग धर्म के तरह मानते थे, जो 2008,2010 और अब 2016 मे भी देखा जा सकता है।
इससे जाहिर होता है कि कश्मीरीयों का आंदोलन सक्रिय आंदोलन न होकर एक निष्क्रिय आंदोलन है, जो निरंतर नहीं बल्कि प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न होता है।
इस वजह से ये स्वतःस्फूर्त आंदोलन न होकर केवल कृत्रिम आंदोलन हैं।
यदि वे कारणों से प्रेरणा लेना शुरू कर देते है तो ये प्रतिक्रिया भी धीरे-धीरे समाप्त हो जा जाता है।
जिस दिन आम लोगों की भीड़ प्रतिक्रिया के लिए जुटना बंद कर देगा उस दिन अलगाववादी नेता भी अप्रासंगिक हो जाएगा, उसके बाद नाम मात्र के स्थानीय मुजाहिद्दीन रह जाऐंगे जिसे भारतीय सेना के जवान हम जैसे कश्मीरी के “टिप” से ढूंढ ढूंढ के सफाया कर देंगे।
मगर 2016 के बाद घाटी मे उत्पन्न हुए हालातों को देखकर लगता है, भिन्न भिन्न लोगों के लिए विभिन्न आदर्शों का इस्तेमाल जिहाद मे तैयार करने के लिए किया जा रहा है, हर जेहादी के लिए बिल्कुल ही अलग और नया तरीका अपनाया जा रहा है।
हालांकि मैं एक सच्चाई से इंकार नहीं कर रहा, अपने भविष्य का फैसला कश्मीर मत संग्रह द्वारा किए जाने की मांग करता था, करता है और आगे भी करता रहेगा।
यदि आप सोशल मीडिया पर Kashmir Azadi Evangelist के स्टेटस या उसपर होने वाली बहस को देखते हैं तो वहां भी “मत संग्रह” पर वाद विवाद करते दिखाई देते हैं।
कश्मीर से बाहर के लोग भी “युनाइटेड नेशन” के निर्णय को लागू करने और स्वतंत्र “मत संग्रह” के पक्ष मे आवाज उठाते है एवं इसके लिए आंदोलन करते देखा जाता है।
मत संग्रह के समर्थन में खड़े लोग वे नहीं हैं जो “इस्लामिक स्टेट” का सपना देखे जिसे ‘खिलाफत’ के अंदर ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ द्वारा संचालित किया जाता है, ब्लकि एक स्वतंत्र संप्रभु लोकतांत्रिक राज्य के लिए मत संग्रह का समर्थन करते हैं।
निजाम-ए-मुस्तफा पर हमारे इस्लाम के विभिन्न समुदायों का विभिन्न विचार है।
जिन्हें निजाम-ए-मुस्तफा के वजूद पर सहमति है वे उसके कई तरह के विचारों को भी मानता हो यह जरूरी नहीं है।
उदाहरण के लिए जैसे, शिया मुस्लिमों को सलाफी विचार के निजाम-ए-मुस्तफा से परेशानी है तथा यह विचार को वे मुसीबत मानते हैं।
उसी प्रकार सूफी विचार (अधिकांश कश्मीरी) जिन्हें सबसे सहनशील माना जाता है वे ईद-ए-मिलाद का जश्न दरगाहों मे खुलकर मनाते हैं जिसे “सलाफी” “खिलाफत” बिल्कुल भी पसंद नहीं करते हैं।
यद्यपि इनमें से किसी भी विचार का एक दुसरे से कोई समानता नहीं है फिर भी भारत के गैर मुस्लिम यह मान बैठे हैं कि कश्मीरी मत संग्रह द्वारा अलग राज्य ” इस्लामिक स्टेट” बनाने के लिए चाहते हैं।
जबकि इस्लामिक स्टेट के विचार और आजाद कश्मीर के विचार मे कोई समानता नहीं है।
By Saib Ahmad