अंतर्जातीय विवाह का दूसरा नाम गुनाह है जिसे छोटी मोटी सजा देकर माफ़ किया जा सकता है, मगर तथाकथित छोटी जाति से अंतर्जातीय विवाह के लिए मृत्यदंड देकर भी माफ़ नहीं किया जा सकता।
यह संविधान का नहीं बल्कि सामाजिक और पारिवारिक संस्थाओं के शासन का अलिखित कानून है, इस कानून में न आरोपी पक्ष होता है और न बचाव पक्ष होता है लेकिन जज हर कोई बन जाता है।
हालांकि पहले की अपेक्षा अब हमारा समाज थोड़ा उदार जरूर हुआ है लेकिन यह उदारता भी केवल बेटों तक के लिए ही सीमित है, मतलब गजब है न! बेटे के लिए जब रिश्ते की बात होगी तो थोड़ी ना नुकुर करेंगे, फिर शान से सगाई से लेकर शादी तक का मुहूर्त निकाल लेंगे, लेकिन जहां बेटी ने ऐसी कोई इच्छा जताई तो फिर वह नाक काटने वाली से लेकर घर की इज्जत धूल में मिलाने वाली बन जाती है।
अधिकांश, छोटी जाति से शादी करने पर बेटा, बेटी दोनों के लिए समान रवैया अपनाते है मगर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण इसका लाभ लड़कों को जरूर मिलता है, लेकिन बेटी के लिए तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
कोई सामाजिक दबाव में नैतिकता दिखाने के लिए औलाद का बहिष्कार करता है और कोई इसी दबाव में ” ऑनर किलिंग ” तक कर जाता है।
मुझे तो यह समझ नहीं आता कि यह कैसा “ऑनर” जिसे बचाने के लिए अपने बच्चे का खून बहाना पड़े? यह कैसी शान जो मरा मानकर पूरी जिंदगी बच्चे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते?
ऑनर किलिंग के मामले में भारत तेजी से बढ़ता जा रहा है या यूं कहे 2014 की अपेक्षा 2015 में 796% से बढ़त “दर्ज” किया गया है, ये आंकड़े दर्ज मामलों के हैं, ऐसे न जाने कितने किलिंग हुए होंगे जो बिना दर्ज हुए भी रह जाते है।
इस प्रकार के अपराध में भारत के लगभग सभी जाति के लोगों की संलिप्तता बताती है कि हम एक समाज के तौर पर कितने असफल रहे हैं।
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का मानना था, आरक्षण से सामाजिक समानता आयेगी तो अंतर्जातीय विवाह भी होंगे फिर न जातिवाद रहेगा और न भेदभाव, जिससे आरक्षण का औचित्य भी धीरे धीरे समाप्त होता जाएगा।